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Wednesday, October 26, 2011

***** शुभ दीपावली.....!! *****



शुभ दीपावली.....!!.. अर्थ -वैभव व् समृद्धि की परिपूर्णता का परिचायक पर्व दीपावली शुभ हो …

दीपावली का यह पावन पर्व आप सभी के लिए, 
और राष्ट्र के लिए, सुख, वैभव और सुरक्षा का कारक बने ,
यही , प्रभु के श्रीचरणों में विनती है..
...
छोटा सा एक, दीप जलायें।
मानव-मन को पुन: मिलायें।।
अंधकार से ढका विश्व है,
दीप से दीप जलाते जायें।

चौराहे पर रक्त बह रहा,
नारी नर को कोस रही है,
नर नारी का खून पी रहा,
लक्ष्मीजी चीत्कार रही हैं।

राम का हम हैं, स्वागत करते
रावण मन के अन्दर बस रहा।
लक्ष्मी को है मारा कोख में
अन्दर लक्ष्मी पूजन हो रहा।

आओ शान्ति सन्देश जगायें
हर दिल प्रेम का दीप जलायें।
बाहर दीप जले न जले,
सबके अन्दर दीप जलायें।

विद्वता बहुत हाकी है अब तक,
पौथी बहुत बांची हैं अब तक,
हर दिल से आतंक मिटायें,
छोटा सा एक, दीप जलायें।

दीवाली का पर्व हम सबको आत्मचिन्तन एवं आत्मनिरीक्षण का सन्देश देता है। यह पर्व अन्धकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक भी है। बाहर रोशनी बढ़ती जा रही है। हमारे अन्दर व्याप्त ..अज्ञान, अविद्या, पाखण्ड, विषय-वासना, असन्तोष, ईर्ष्या, द्वेष आदि अँधेरे का विनाश हो , यही दीपावली सन्देश है....!!
धन तेरस, छोटी दिवाली , और दीपावली का महान पर्व , सिध्हि विनायक , और माँ लक्ष्मी से शुभ और वैभव की याचना ( कामना) करने के पर्व है... !!

***** दिवाली की बधाई *****


सफलता कदम चूमती रहे, ख़ुशी सदा पास रहे,
यश इतना फैले की दिशायें रोशन हो जाएँ,
लक्ष्मी इतनी बरसे की दामन छोटा पड़ जाए,

दीप जलते जगमगाते रहे,
आप हमें और हम आपको याद आते रहे,

जब तक ज़िन्दगी है, दुआ है हमारी,
आप चाँद की तरह जगमगाते रहे,

आई आई दिवाली आई, साथ में कितनी खुशियाँ लायी,
धूम मचाओ, मौज मनाओ,

आप सभी को दिवाली की बधाई.

***** शुभ दीपावली -2011 *****


जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये


नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उडे मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,


लगे रोशनी की झडी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,


खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
उषा जा न पाये, निशा आ ना पाये


जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये

शुभ दीपावली-2011

आओं मिलकर दिल जलाएं...
जगमग जगमग धरती हो जाएँ..
दीपों से दीप जलाकर हम....
घर चोबरें में उजियारा करें...
भेदभाव हम सभी भुलाकर...
मन का तमस/अँधेरा दूर करें...
हंस-खुशकर ये त्यौहार मनाएं..
बम पटाखों से होता शोर...
आतिशबाजी का होता जोर....
जगमग जगमग दीवाली में..
सावधानी भी बरती/रखी जाएँ..
दीवाली के इस शुभ प्रकाश में..
आती होठों पर मुस्कान...
लक्ष्मी -गणेश के पूजन से...
सबको मिले सुबुद्धि,धन का वरदान...
सभी के घर आँगन रिद्धि-सिद्धि आये..
आओ मिलकर दीप जलाएं...
जगमग-जगमग धरती हो जायें...

Tuesday, September 13, 2011

देखेगा कौन...

बगिया में नाचेगा मोर
देखेगा कौन?
तुम बिन ओ मेरे चितचोर
देखेगा कौन?

नदिया का यह नीला जल,
रेतीला घाट.
झाऊ की झुरमुट के बीच
यह सूनी बाट.

रह-रह कर उठती हिलकोर
देखेगा कौन?
आंखडियों से झरते लोर
देखेगा कौन?

बौने ढाकों का यह वन,
लपटों के फूल.
पगडण्डी के उठते पांव
रोकते बबूल.

बौराए आमों की ओर
देखेगा कौन?
पाथर-सा ले हिया कठोर
देखेगा कौन?

नाचती हुई फुलसुंघनी,
वनतीतर शोख.
घांसों में सोनचिरैया,
डाल पर महोख.

मैना की ये पतली ठोर
देखेगा कौन?
कलंगीवाले ये कठफोर
देखेगा कौन?

आसमान की ऐंठन-सी,
धुंए की लकीर.
ओर-छोर नापती हुई,
जलती शहतीर!

छू-छू कर साँझ और भोर
देखेगा कौन?
दुखती यह देह पोर-पोर
देखेगा कौन?
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शम्भुनाथ सिंह
(धर्मयुग २०-०९-१९८१)

बेटा / बेटी

अगर बेटा वारस है,तो बेटी पारस है l
अगर बेटा वंश है,तो बेटी अंश है l
अगर बेटा आन है,तो बेटी शान है l
अगर बेटा तन है,तो बेटी मन है l
अगर बेटा मान है,तो बेटी गुमान है l
अगर बेटा संस्कार,तो बेटी संस्कृति है l
अगर बेटा आग है,तो बेटी बाग़ है l
अगर बेटा दवा है,तो बेटी दुआ है l
अगर बेटा भाग्य है,तो बेटी विधाता है l
अगर बेटा शब्द है,तो बेटी अर्थ है l
अगर बेटा गीत है,तो बेटी संगीत है l
अगर बेटा प्रेम है,तो बेटी पूजा है l
 

Tuesday, August 9, 2011

जिंदगी में सवेरा.........
  
हम उठते हैं तो अंधेरा होता है
तुम उठते हो तो सवेरा होता है।
ये सोने और उठने का चक्कर छोड़ो यार,
देखों खुद कुछ करने से,
कितनों की जिंदगी में सवेरा होता है।

Saturday, August 6, 2011

जीवन क्या है

ग़ज़ल क्या है, दर्द के समंदर में उतरकर देखो
शेर क्या है, किसी के गम में तडपकर देखो
जिंदगी क्या है, जान जाओगे दु:ख सहकर यारों
खुशी क्या है, इस जहां में तुम दिल लगाकर देखो

राग क्या है, मन की झील में नहाकर देखो
संगीत क्या है, सूरों को दिल में सजाकर देखो
जादू क्या है, जान जाओगे लय में डूबकर देखो
नशा क्या है, आत्मा संग दिल से गाकर देखो

भजन क्या है, प्रभु के शरण में समाकर देखो
सत्संग क्या है, गुरु के वचनों को अपनाकर देखो
बदल जायेगी दु:खों की दुनिया शांति पाओगे यारों
प्रभु की भक्ति में मन को तुम डूबाकर देखो

जीवन क्या है किसी दु:खी को तुम अपनाकर देखो
खुशी क्या है किसी के तुम काम आकर देखो
सुख मिलता है कैसे जीवनभर न समझ पाया कोई
किसी के गम में खुद को तुम लूटाकर देखो

मैत्री दिवस


मैत्री दिवस पर अपने सब मित्रों के नाम , जिनके बिना यह जीवन निरर्थक होता, मै दो महाकवियों गोस्वामी तुलसी दास और राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना उद्‍धृत कर रहा हूं :

१. राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर रचित रश्मि रथी से जहां श्री कृष्ण से संवाद के दौरान कर्ण के मुख से कवि ने मैत्री का अति सुन्दर बखान किया है :

मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,

धिक्कार योग्य होगा वह नर ,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,

हो अलग खड़ा कटवाता है ,
खुद आप नहीं कट जाता है ।


जिस नर की बाँह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गही मैने,

उस पर न वार चलने दूंगा,
कैसे कुठार चलने दूंगा ?

जीते जी उसे बचाउंगा,
या आप स्वयं कट जाउंगा ।

मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब इसे तोल सकता है धन ?

धरती की है क्या बिसात ?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ,

उसको भी न्योवछवर कर दूं,
कुरुपति के चरणों मे धर दूं ।



२. गोस्वामी तुलसी दास कृत श्री राम चरित मानस के किष्किन्धा काण्ड से जहां श्री राम संवाद के दौरान सुग्रीव को अपनी मित्रता का भरोसा दिलाते हुए मित्र के गुणों का अति सुन्दर बखान कर रहे हैं :


जे न मित्र दुख होहिं दुखारी,
तिन्हही बिलोकत पातक भारी।

निज दुख गिरि सम रज करि जाना,
मित्र क दुख रज मेरु समाना ।

जिन्हके अस मति सहज न आई ,
ते सठ कत हठि करत मिताई ।

कुपंथ निवारि सुपंथ चलावा ,
गुन प्रकटै अवगुनहिं दुरावा ।

देत लेत मन संक न धरई ,
बल अनुमानि सदा हित करई ।

बिपत काल कर सतगुन नेहा ,
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ।

आगे कह हित वचन बनाई ,
पीछे अनहित मन कुटिलाई ।

जाके चित एहि गति सम भाई ,
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई ।

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी ,
कपटी मित्र सूल सम चारी ।

सखा सोच त्यागहु बल मोरे ,
सब बिधि घटब काज मैं तोरे ।



मैत्री दिवस पर सबको हार्दिक शुभकामनाएं

Tuesday, July 26, 2011

तुलसी अपने राम को.......

 
तुलसी अपने राम को, भजन करौ निरसंक

आदि अन्त निरबाहिवो जैसे नौ को अंक ।।


आवत ही हर्षे नही नैनन नही सनेह!

तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह!!


तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहु ओर!

बसीकरण एक मंत्र है परिहरु बचन कठोर!!


बिना तेज के पुरूष अवशी अवज्ञा होय!

आगि बुझे ज्यों रख की आप छुवे सब कोय!!


तुलसी साथी विपत्ति के विद्या, विनय, विवेक!

साहस सुकृति सुसत्याव्रत राम भरोसे एक!!


काम क्रोध मद लोभ की जो लौ मन मैं खान!

तौ लौ पंडित मूरखों तुलसी एक समान!!


राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार!

तुलसी भीतर बहारों जौ चाह्सी उजियार!!


नाम राम को अंक है , सब साधन है सून!

अंक गए कछु हाथ नही, अंक रहे दस गून!!


प्रभु तरु पर, कपि डार पर ते, आपु समान!

तुलसी कहूँ न राम से, साहिब सील निदान!!


हरे चरहिं, तापाहं बरे, फरें पसारही हाथ!

तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ!!


तुलसी हरि अपमान तें होई अकाज समाज!

राज करत रज मिली गए सकल सकुल कुरुराज!!


राम दूरि माया बढ़ती , घटती जानि मन मांह !

भूरी होती रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छांह !!


राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि!

राग न रोष न दोष दुःख सुलभ पदारथ चारी!!


चित्रकूट के घाट पर भई संतान की भीर !

तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करे रघुबीर!!


तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए!

अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए!!


नीच निचाई नही तजई, सज्जनहू के संग!

तुलसी चंदन बिटप बसि, बिनु बिष भय न भुजंग !!


ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर कहहीं न दूसरी बात!

कौड़ी लागी लोभ बस करहिं बिप्र गुर बात !!


फोरहीं सिल लोढा, सदन लागें अदुक पहार !

कायर, क्रूर , कपूत, कलि घर घर सहस अहार !!


तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन!

अब तो दादुर बोलिहं हमें पूछिह कौन!!


मनि मानेक महेंगे किए सहेंगे तृण, जल, नाज!

तुलसी एते जानिए राम गरीब नेवाज!!


होई भले के अनभलो,होई दानी के सूम!

होई कपूत सपूत के ज्यों पावक मैं धूम!!..

Friday, July 15, 2011

क्या सिखाता है सावन का महीना ?

 
सावन रिमझिम बूंदों का महीना है। तेज गरमी के बाद आषाढ़ की उमस और फिर सावन की फुहारों से मिली ठंडक, हमें कुछ संदेश देती है, हमें कुछ सिखाती है। सावन केवल एक महीना नहीं है बल्कि जीवन के हर वर्ष में आने वाला एक ऐसा महीना है जिससे हम कई बातें समझ और सीख सकते हैं।


सावन के मिजाज में कई बातें हैं जो हमें जीवन की परिस्थितियों से जूझने और सुधारने का मौका देती हैं। पहले हम समझें कि सावन क्या है? कहते हैं आषाढ़ का महीना बारिश का आगाज होता है, सावन की रिमझिम हमारे शरीर को गरमी से हुए नुकसान से उबारती है और फिर भादौ की झमाझम बारिश धरती की भीतर की उष्मा को खत्म कर देती है। सावन का महीना हमें जीवन प्रबंधन के कई सूत्र बता रहा है, जानिए ये क्या हैं:-


- सावन रिमझिम फुहारों का महीना है। आसमान पर दिनभर छाई रहने वाली घटाएं धीरे-धीरे बरसती हैं। यह हमें सिखाती है कि जीवन में हम जब भी किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए निकलें, हमारी गति शुरुआत में धीमी रहे, ताकि हम अपनी योजना के हर पहलू को देखते हुए कोई कदम उठा सकें।


- सावन में अधिकांश समय आसमान पर बादल रहते हैं, लेकिन बरसते कभी-कभी ही हैं। यह सिखाते हैं कि हमें अपने जीवन में किसी भी चुनौती के लिए हर वक्त तैयार रहना चाहिए, ताकि समय आने पर हमें तैयारियों में देर न लगे।

Sunday, June 26, 2011

नियति

राजा को गुप्तचरों ने सूचना दी कि पड़ोसी राज्य की सेनाएं उस राज्य पर धावा बोलने के लिए निकल चुकी हैं। उसने सेनापति को उन्हें राज्य की सीमा पर रोक देने का आदेश दिया। सेनापति अपनी सफलता को लेकर आश्वस्त था, क्योंकि उनके पास कहीं ज्यादा बड़ी सेना थी। लेकिन उसके सैनिकों को अपनी जीत पर संदेह था।
सेनापति ने कई तरह से समझाया, दोनों सेनाओं की तुलना के ढेर सारे तथ्य बताए, पर सैनिकों के मन में अकारण बैठ गया था कि हमारी हार ही होनी है। बावजूद इसके सेनापति सेना लेकर निकल पड़ा, पड़ोसी सेना को सीमा पर ही रोक देने के लिए। रास्ते में एक मंदिर था। परंपरा के अनुसार वे वहां पूजा के लिए रुके। सैनिकों ने अपनी जीत की कामना की, पर उन्हें अब भी जीत का भरोसा नहीं था। तभी सेनापति ने अपने सैनिकों को संबोधित करना शुरू किया। उसने कहा, ‘हम यह सिक्का उछालकर देखेंगे कि नियति में क्या लिखा है। अगर चित आया, तो हमारी जीत होगी और पट आया, तो हार।’ सैनिक उत्सुकता से देखने लगे। सेनापति ने सिक्का उछाला और यह चित था। सैनिकों में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी। कहना न होगा कि उन्होंने पड़ोसी राज्य की सेना को न सिर्फ़ अपनी सीमा पर रोक दिया, बल्कि काफ़ी दूर तक खदेड़ भी आए। बाद में एक युवा सैनिक ने सेनापति से कहा, ‘सचमुच, जो नियति में लिखा होता है, वही होता है।’ सेनापति ने जवाब देने की बजाय उसे वह सिक्का दिखा दिया। उस सिक्के के दोनों तरफ़ चित वाला ही निशान था। फिर क्या था, सैनिक वहीं अपना माथा पकड़कर बैठ गया।

पलाश को खिलने दो - कहानी

हर वक्त नारी की तुलना में स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने वाला पुरूष विधुर होते ही अचानक इतना कमज़ोर हो जाता है कि एक बच्चे को भी अकेले नहीं पाल पाता! बच्चे के पालन-पोषण का हवाला देकर तुरंत पुरुष पर पुनर्विवाह के लिए ज़ोर डाला जाता है। वहीं नारी को अबला की संज्ञा देने वाले समाज द्वारा स्त्री को विधवा के रूप में अकेले जीवन का भार ढोने के लिए छोड़ दिया जाता है।


‘मम्मा, कल चलोगी न अरुण अंकल के घर होली खेलने?’ पलाश की आवाज़ से बरखा की तंद्रा टूटी। पिछले कई दिनों से एक अंतर्द्वद सा मन-मस्तिष्क में चल रहा था। जब से डॉ. अरुण ने बरखा के समक्ष विवाह-प्रस्ताव रखा, तबसे एक अजीब से तनाव में घिर गई थी वह। आखिर क्या जवाब दे..उसने एक हफ्ते का समय मांगा था सोचने के लिए। आज उस हफ्ते का आखिरी दिन है। कल सुबह कुछ तो स्पष्ट करना ही होगा। अपने लिए नहीं, तो कम से कम अरूण के लिए..।

बरखा को अरुण की माताजी की बात स्मरण हो आई-‘बेटी या तो अरुण की ब्याहता बनकर उसको सम्भाल लो या कम से कम उसे स्वतंत्र कर दो.. उसके जीवन से दूर चली जाओ क्योंकि जब तक तुम उसके सम्मुख रहोगी, वह किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकेगा।’ माताजी ने एक नेक-सुशील लड़की की फोटो भी दिखाई थी बरखा को।

‘सुलभा नाम है इसका..पढ़ी-लिखी सुशील लड़की है।’ तस्वीर में वाकई सुंदर लग रही थी सुलभा, पर बरखा को अरुण की शादी की बात सुनकर न जाने क्यों मन में कुछ दरकता-सा अनुभव हुआ। मन में अरुण के चिर-सानिध्य की इच्छा जो सुप्त अवस्था में दबी-छिपी थी, शायद वही मुखरित होने लगी थी। पलाश भी तो अरुण का साथ पाकर खिल उठता है, परंतु अपने स्वार्थ के लिए अरुण का जीवन दांव पर लगा देना भी तो ठीक नहीं..।’ तो क्या करें वह? शादी कर ले अरुण से?

इसी प्रश्न ने पिछले कई दिनों से बरखा का चैन छीन लिया था। वैवाहिक जीवन की तीन साल की छोटी सी अवधि में ही स्वप्निल उसे अकेले वैधव्य भोगने के लिए छोड़ गए थे। एक रात कार्यालय से लौटते समय स्वप्निल की मोटर साइकिल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। तब पलाश केवल दो साल का था। पलाश को लेकर बरखा मां के पास आ गई थी। बरखा के विवाह पश्चात मां भी तो अकेली रह गई थी।

जीवन भर बरखा को मां ने अकेले ही पाला पोसा था। बाप का साया तो उसके सिर से बचपन में ही उठ गया था। आज वही इतिहास जब दोहराया गया, तो मां भी अंदर तक टूट गई थी। पर बरखा व पलाश की खातिर खड़ी रही.. डटकर खड़ी रही। पिछले साल जब पलाश को निमोनिया हो गया, तब इलाज के सिलसिले में ही डॉ. अरुण से मुलाकात हुई थी।

हंसने-खेलने की उम्र में सफेद लिबास में लिपटी खोई-खोई सी बरखा को जिन गहरी नज़रों से डॉ. अरुण देखते, इससे बरखा भले ही अनभिज्ञ थी, पर मां की पारखी नज़रों ने बहुत कुछ जान-समझ लिया। डॉ. अरुण ने भी दो-चार मुलाकातों में औपचारिकताओं को परे कर दिया था। मां को अरुण बिल्कुल घर का सदस्य सा महसूस होता। वह था भी मिलनसार, खुशमिज़ाज..। बरखा ने महसूस किया कि गुमसुम रहने वाला पलाश अरुण के आते ही चहकने लगता है। उसे भी तो अरुण का साथ अच्छा लगने लगा था।

पर मानव-मन की स्वाभाविक सोच के उभरते ही न जाने क्यों उसका मन अपराध-बोध से घिरने लगता। भारतीय नारी को अधिकार ही कहां, जो एक से दूसरे पुरुष को मन में स्थान दे सके। फिर पति चाहे जैसा भी हो.. जीवित हो या मृत। ‘पति-परमेश्वर’ के संस्कार की जड़े स्त्री के मन-मस्तिष्क में तभी से अपनी पैठ जमाना शुरू कर देती है, जब वह बालिका होती है। फि र किशोरी से युवा होते-होते यही संस्कार उसे नियमबद्ध कर डालते हैं। इन नियमों से परे सोचा नहीं कि घोर अपराध कर डालने की ऐसी ग्लानि मन में उत्पन्न होने लगती है, मानो महापाप कर डाला हो।

क्लीनिक बंद कर घर जाते-जाते अरूण रोज़ पलाश को चॉकलेट देते हुए जाना नहीं भूलते। एकाध दिन भी क्लीनिक में देर हो जाती, तो बरखा न जाने कितनी बार घड़ी पर नज़र डालती, फिर अपनी मनोदशा पर स्वयं ही लज्जित होती। बरखा स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि यह कैसी स्थिति है? मन ही मन आत्म-विश्लेषण करती शायद यह इंतज़ार पलाश के मद्देनज़र ही होता है।

पलाश बेहद खुश जो हो जाता है अरुण के आते ही। और बरखा स्वयं? दलीलें तो लोगों के समझ पेश करने के लिए होती हैं, अपने मन को इनसे संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। बरखा स्पष्ट महसूस कर रही थी कि अकेले पलाश ही नहीं, वह स्वयं भी पुलकित हो जाती है डॉ. अरुण के आने पर। अरुण का सानिध्य उसमें नया उत्साह व स्फूर्ति का संचार कर देता है। पर ऐसा होना क्या ठीक है? लोग क्या सोचेंगे, मां क्या सोचेंगी? विचारों का ज्वार-सा था, जो किसी निर्णय पर थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।

बरखा की मन:स्थिति को पहचान कर मां ने ही एक दिन अरुण से क्लीनिक पहुंचकर इस विषय पर बात करने की पहल की थी। अरुण तो जैसे पहले से ही तैयार बैठे थे। केवल हिम्मत जुटाने की देरी थी, जो आज मां ने स्वयं बात कर दिला दी थी। मां ने ही अरूण को स्वयं बरखा से विवाह की बात करने के लिए प्रेरित किया था। अरुण के विवाह-प्रस्ताव पर बरखा ने चुप्पी साध ली थी। न करने का मन नहीं कर रहा था और हां में जहां एक ओर उसकी व पलाश की जीवन भर की खुशियां समाहित थीं, तो वहीं साथ थीं समाज के लोगों द्वारा की जाने वाली टिप्पणियां..अवांछित प्रश्नों की झड़ियां.. लोगों की तिरस्कृत, व्यंग्य कसती नज़रें..।

ढेर सारी सामाजिक वर्जनाओं व नियमों से पटे समाज में स्त्री-पुरुष के लिए इतने भिन्न-भिन्न मापदंड क्यों हैं? हर वक्त नारी की तुलना में स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने वाला पुरुष विधुर होते ही अचानक इतना कमज़ोर हो जाता है कि एक बच्चे को भी अकेले नहीं पाल पाता! बच्चे के पालन-पोषण का हवाला देकर तुरंत पुरूष पर पुनर्विवाह के लिए ज़ोर डाला जाता है। वहीं नारी को अबला की संज्ञा देने वाले समाज द्वारा स्त्री को विधवा के रूप में अकेले जीवन का भार ढोने के लिए छोड़ दिया जाता है। एक अबला नारी विधवा होते ही अकेली जीवन भर स्वयं को तथा बच्चे को पालने में अचानक सक्षम, समर्थ कैसे हो जाती है? जीवन के स्वाभाविक उत्साह-उमंग को सफेद वस्त्रों से ढंक भर देने से मन की सारी संवेदनाएं मर जाती हैं क्या? ऐसी न जाने कितनी विवशताओं को गले में बांधकर स्त्री, गरिमामयी, सहनशील, सर्व-समर्था के थोथे लेबल लटकाए रहती है।

अरुण ने बरखा को सोचने-समझने का पूरा अवसर दिया था। बरखा फिर से अरुण द्वारा लिखा पत्र पढ़ने लगी- ‘बरखा, मैंने तुम पर दया या परोपकार की दृष्टि से विवाह करने का मन नहीं बनाया है। बल्कि यह निर्णय तुमसे व पलाश से अनुराग के तहत ही है। हां, यदि विवाह के बाद दूसरी संतान के आने पर पलाश की उपेक्षा का भय मन में पाले हो, तो तुम्हें यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैंने हमेशा से जीवन में एक संतान का ध्येय तय कर रखा था। वह तुमसे विवाह पश्चात भी कायम रहेगा।

प्यार लुटाने के लिए संतान की रग में अपना ही खून दौड़े, यह मैं नहीं मानता। तुम्हें अपनाने से पलाश स्वयं मेरा अपना हो जाएगा। बरखा, तुम चाहोगी, तो तुम्हारे इन सफेद वस्त्रों में छिपे सभी इंद्रधनुषी रंग तुम्हारे व पलाश के जीवन को रंगमयी कर देंगे। जल्दबाज़ी में तुम कोई निर्णय लो, यह मैं भी नहीं चाहता। पर तुम्हारी स्वीकृति में तीन ज़िंदगियों की खुशियां समाहित है, यह अवश्य स्मरण रखना। कुछ ही दिनों के अंतराल पर रंगपंचमी है। तुम्हारी स्वीकृति के रूप में उस दिन मैं तुम्हें इन सफेद वस्त्रों में नहीं बल्कि इंद्रधनुषी रंगों में लिपटा देखना चाहूंगा।’

सदैव तुम्हारा अरुण

कई बार इन अक्षरों को पढ़ चुकी थी बरखा। पूरे हफ्ते अरुण एक बार भी उससे व पलाश से मिलने नहीं आया था। यह समय उसने बरखा को बिना किसी खलल के, तसल्ली से सोचने-समझने के लिए दिया था। असमंजस्य की स्थिति में फंसी बरखा चुपचाप अपना सिर थामे बैठी थी। मां ने आकर बरखा के माथे पर हौले से हाथ फेरा और बोलीं-‘बेटी, इतना ही कहूंगी कि केवल अपनी अंतरात्मा की बात मानना, इसके आगे और कुछ मत सोच।’

‘मां, तुमने भी तो अपना पूरा जीवन वैधव्य में ही काटा है।’
‘हां बेटी, इसीलिए तो नहीं चाहती कि तू भी इस लम्बे जीवन को नीरस बनाने के लिए बाध्य रहे। समाज नियम तो बनाता है पर नियम से उपजी समस्याएं हल करने नहीं आता।’ मां ने समझाया।

‘परंतु स्त्री के लिए पर-पुरुष के बारे में सोचना तक पाप है न मां? और स्वप्निल की आत्मा को क्या कष्ट नहीं होगा?’ बरखा अब भी दुविधाग्रस्त थी।

‘पर-पुरुष कौन बरखा? हां, सामाजिक परिभाषा के तहत तो केवल पति अपना व उसके अलावा हर पुरुष पराया होता है पर आसपास नज़र डालोगी, तो न जाने कितने ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जहां पति ‘अपने’ होते हुए भी पत्नी की खुशियों को ताक पर रखकर जीते हैं और जो तेरे भले की सोच रहा है.. तेरी खुशी के बारे में सोच रहा है..तुझे मान दे रहा है.. सम्मानजनक जीवन जीने के लिए प्रेरित कर रहा है, वह पराया कैसे हो सकता है? अरुण क्या केवल इसलिए पराया है क्योंकि तेरे जीवन में पहले स्वप्निल आ चुका था?’

‘बेटी, जो गुज़र जाता है, कभी न लौटने के लिए वह स्वप्न ही होता है। स्वप्निल भी तेरी ज़िंदगी का स्वप्न ही था और रही उसकी आत्मा दुखाने की बात, तो क्या स्वप्निल ने कभी चाहा था कि तू और पलाश जीवन को बोझ की तरह लादकर जिओ? पलाश की ओर देख बरखा.. अपने भविष्य की ओर देख..। और तू अकेली नहीं है..। मैं हूं न तेरे साथ.. हर मोर्चे पर तेरी ढाल बनने के लिए तत्पर।’

कितनी व्यग्र.. कितनी व्यथित थी बरखा पर मां ने हर दुविधा को मिटा दिया था। ‘नहीं..अब नहीं भागूंगी मैं यथार्थ से..वास्तविकता की कसौटी पर सही साबित होने वाला, जीवन में खुशियों के रंग बिखेरने वाला उसका निर्णय महापाप कदापि नहीं हो सकता।’

हफ्तेभर से अरुण की अनुपस्थिति से मुरझाए पलाश को बरखा ने प्यार से चूम लिया, ‘बेटा, अरुण अंकल को फोन कर दो, हम सुबह रंग खेलने आ रहे हैं।’
मां भी तो यही चाहती थी कि बरखा के जीवन में अरुण के प्रवेश से इंद्रधनुषी रंग छा जाए और पलाश खिल उठे।

करवाचौथ का व्रत

कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।
हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया-' कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले ' अच्छा!' मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।
कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार नहीं हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।
निःश्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।
लाजवन्ती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नयी ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाये, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ' चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।
कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।
मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिये उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।
क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपये आ गए थे। कन्हैया अपनी चिठ्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।'
करवे के रुपये आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे...?'
और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीजें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।
अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। वह लाजो का बताया सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।
लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।
तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियाँ लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।
लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरघी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।'
लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्ही के लिये व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।
लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उसपर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।
लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरखा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिये बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकव रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आयाऔर कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किये-किये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।
लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवाचौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।
कन्हैयालाल के लिये उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।
कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अन्धकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।
कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !'
लाजो के दुखे हुये दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।
कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हाँफते हुये लात उटाकर कहा, ' और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'
लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिये तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैने कौन व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम-जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल...!'
कन्हैयालाल का लात मारने के लिये उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।
लाजो पर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उड़काकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैने क्या किया था जो मारने लगे।
किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोंछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया।
कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गये और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया है।'
कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिये।' कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिये न कहकर नल की ओर चला गया।
लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'
लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था।
लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ गई, रहने दो। किये देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिये दूध ले आता हूँ।'
लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'
उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।' कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुष्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ' तुम्हे नींद तो नहीं आ रही ? '
साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवाचौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीआर्डर करवे के लिये न पहुँचा था। करवाचौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया करवा भेजना शायद भूल गये।'
कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। डाकखाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबियत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आयेंगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? ' सब ढकोसले हैं।'
'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।
सन्ध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर ब्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रूमाल लेकर आलमारी में रख दिया।
अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।
' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।
' यह बात...! तो हमारा भी ब्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा।
लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरघी कहाँ खाई?'
'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'
लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।

संतोष का पुरस्कार

आसफउद्दौला नेक बादशाह था। जो भी उसके सामने हाथ फैलाता, वह उसकी झोली भर देता था।

एक दिन उसने एक फकीर को गाते सुना- जिसको न दे मौला उसे दे आसफउद्दौला। बादशाह खुश हुआ। उसने फकीर को बुलाकर एक बड़ा तरबूज दिया। फकीर ने तरबूज ले लिया, मगर वह दुखी था। उसने सोचा- तरबूज तो कहीं भी मिल जाएगा। बादशाह को कुछ मूल्यवान चीज देनी चाहिए थी।

थोड़ी देर बाद एक और फकीर गाता हुआ बादशाह के पास से गुजरा। उसके बोल थे- मौला दिलवाए तो मिल जाए, मौला दिलवाए तो मिल जाए। आसफउद्दौला को अच्छा नहीं लगा। उसने फकीर को बेमन से दो आने दिए। फकीर ने दो आने लिए और झूमता हुआ चल दिया। दोनों फकीरों की रास्ते में भेंट हुई। उन्होंने एक दूसरे से पूछा, 'बादशाह ने क्या दिया?' पहले ने निराश स्वर में कहा,' सिर्फ यह तरबूज मिला है।' दूसरे ने खुश होकर बताया,' मुझे दो आने मिले हैं।' 'तुम ही फायदे में रहे भाई', पहले फकीर ने कहा। दूसरा फकीर बोला, 'जो मौला ने दिया ठीक है।' पहले फकीर ने वह तरबूज दूसरे फकीर को दो आने में बेच दिया।

दूसरा फकीर तरबूज लेकर बहुत खुश हुआ। वह खुशी-खुशी अपने ठिकाने पहुंचा। उसने तरबूज काटा तो उसकी आंखें फटी रह गईं। उसमें हीरे जवाहरात भरे थे।

कुछ दिन बाद पहला फकीर फिर आसफउद्दौला से खैरात मांगने गया। बादशाह ने फकीर को पहचान लिया। वह बोला, 'तुम अब भी मांगते हो? उस दिन तरबूज दिया था वह कैसा निकला?' फकीर ने कहा, 'मैंने उसे दो आने में बेच दिया था।' बादशाह ने कहा, 'भले आदमी उसमें मैंने तुम्हारे लिए हीरे जवाहरात भरे थे, पर तुमने उसे बेच दिया। तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि तुम्हारे पास संतोष नहीं है। अगर तुमने संतोष करना सीखा होता तो तुम्हें वह सब कुछ मिल जाता जो तुमने सोचा भी नहीं था। लेकिन तुम्हें तरबूज से संतोष नहीं हुआ। तुम और की उम्मीद करने लगे। जबकि तुम्हारे बाद आने वाले फकीर को संतोष करने का पुरस्कार मिला।'

जीवन नहीं बदल सकते

अपना जीवन न तो किसी को दिया जा सकता है और ना ही किसी से उसका जीवन उधार लिया जा सकता है। जिन्दगी में प्रेम का, खुशी, का सफलता या असफलता का निर्माण आपको ही करना होता है इसे किसी और से नहीं पाया जा सकता है।
बात दूसरे महायुद्ध के समय की है। इस युद्ध में मरणान्नसन सैनिकों से भरी हुई उस खाई में दो दोस्तों के बीच की यह अद्भुत बातचीत हुई थी। जिनमें से एक बिल्कुल मौत के दरवाजे पर खड़ा है। वह जानता है कि वह मरने वाला है और उसकी मौत कभी भी हो सकती है। इस स्थिति में वह अपने पास ही पड़े घायल दोस्त से बोलता है। दोस्त में जानता हूं तुम्हारा जीवन अच्छा नहीं रहा। बहुत अपराध तुम्हारे नाम है। तुमने अपने जीवन में कई अक्षम्य भूलें की हैं। उनकी काली छाया हमेशा तुम्हें घेरे रही। उसके कारण बहुत दुख और अपमान तुमने सहे हैं। तुमने जो किया वो सब जानते हैं। लेकिन मेरे विरोध में अधिकारियों के बीच कुछ भी नहीं है। तुम एक काम करो तुम मेरा नाम ले लो मेरा सैनिक नंबर भी और मेरा जीवन भी और मैं तुम्हारा जीवन ले लेता हूं। मैं तो मर रहा हंू। मैं तुम्हारे अपराधों और कालीमाओं को अपने साथ ले जाता हूं। ऐसा कहते हुए वह मर जाता है।

प्रेम से ये उसके कहे गए शब्द कितने प्यारे हैं। काश ऐसा हो सकता, नाम और जीवन बदला जा सकता लेकिन ये असंभव है। जीवन कोई किसी से नहीं बदल सकता न तो कोई किसी के स्थान पर जी सकता है। ना किसी की जगह मरा जा सकता है। जीवन ऐसा ही है आप चाह कर भी किसी के पाप पुण्य नहीं ले सकते और ना ही दे सकते हैं। जीवन कोई वस्तु नहीं जिसे किसी से ये बदला जा सके। उसे तो स्वयं से और स्वयं ही निर्मित करना है।

पितृभक्ति

हारूं रशीद बगदाद का बहुत नामचीन बादशाह था। एक बार किसी कारण से वह अपने वजीर पर नाराज हो गया। उसने वजीर और उसके लड़के फजल को जेल में डलवा दिया।

वजीर को ऐसी बीमारी थी कि ठंडा पानी उसे हानि पहुंचाता था। उसे सुबह हाथ-मुंह धोने को गर्म पानी आवश्यक था। किंतु जेल में गर्म पानी कौन लाए? वहां तो कैदियों को ठंडा पानी ही दिया जाता था।

फजल रोज शाम लौटे में पानी भरकर लालटेन के ऊपर रख दिया करता था। रातभर लालटेन की गर्मी से पानी गर्म हो जाता था। उसी से उसके पिता सुबह हाथ-मुंह धोते थे। उस जेल का जेलर बड़ा निर्दयी था। जब उसे ज्ञात हुआ कि फजल अपने पिता के लिए लालटेन पर पानी गर्म करता है, तो उसने लालटेन वहां से हटवा दी।

फजल के पिता को ठंडा पानी मिलने लगा। इससे उनकी बीमारी बढऩे लगी। फजल से पिता का कष्ट नहीं देखा गया। उसने एक उपाय किया। शाम को वह लौटे में पानी भरकर अपने पेट से लोटा लगा लेता था। रात भर उसके शरीर की गर्मी से लौटे का पानी थोड़ा बहुत गर्म हो जाता था। उसी पानी से वह सुबह अपने पिता का हाथ-मुंह धुलाता था। किंतु रातभर पानी भरा लोटा पेट पर लगाए रहने के कारण फजल सो नहीं सकता था। क्योंकि नींद आने पर लोटा गिर जाने का भय था। कई राते उसने बिना सोये ही गुजार दी। इससे वह अति दुर्बल हो गया। किंतु पितृभक्त फजल ने उफ तक नहीं की।

जब जेलर को फजल की इस पितृभक्ति का पता चला तो उसका निर्दयी हृदय भी दया से पिघल गया और उसने फजल के पिता के गर्म पानी का प्रबंध करा दिया। पिता के लिए फजल की यह त्याग भावना सिखाती है कि अपने जनक के प्रति हमारे मन में वैसा ही समर्पण होना चाहिए। जैसा उनका हमारे लिए होता है। पितृ ऋण चुकाने का यही सही तरीका है।

आचार्य विनोबा भावे की अहिंसा नीति

आचार्य विनोबा भावे अपने ज्ञान और सद्विचारों के कारण अत्यंत प्रिय थे। लोग उनसे उपदेश ग्रहण करने आते और प्राप्त ज्ञान को अपने व्यवहार में ढालकर बेहतर इंसान बनने का प्रयास करते। हर विषय पर उनके विचार इतने स्पष्ट और सरल होत कि सुनने वाले के हृदय में सीधे उत्तर जाते। उनके शिष्यों में न केवल भारतीय बल्कि विदेशी भी शामिल थे।

एक बार आचार्य विनोबा पदयात्रा करते हुए अजमेर पहुंचे। वहां भी उनके काफी शिष्य मौजूद थे। उन्होंने पहले अपना आवश्यक कार्य पूरा किया और फिर सभी से मिले। वहां उनके कुछ विदेशी शिष्य भी बैठे थे। उन्हीं में एक अमेरिकी शिष्य भी था। वह विनोबाजी से बोला- आचार्य जी, मैं अमेरिका वापस जा रहा हूं। अपने देशवासियों को आपकी ओर से क्या संदेश दूं।

विनोबाजी कुछ क्षण के लिए गंभीर हो गए और फिर बोले मैं क्या संदेश दूं? मैं तो बहुत छोटा आदमी हूं और आपका देश बहुत बड़ा हैं।

जब अमेरिकी ने काफी जिद की तो वे बोले- अपने देशवासियों से कहना कि वे अपने कारखानों में साल में तीन सौ पैसठ दिन काम कर खूब हथियार बनाएं क्योंकि तुम्हारे आयुध कारखानों और आदमियों को काम चाहिए। काम नहीं होगा, तो बेरोजगारी फैलेगी। किंतु जितने भी हथियार बनाएं, उन्हें तीन सौ पैसठवें दिन समुद्र में फेंक दें।
विनोबाजी की बात का मर्म समझकर अमेरिकी का सिर शर्म से झुक गया। क्योंकि अमेरिका की हिंसक नीति सर्वविदित है।

विनोबाजी का यह संदेश आज के युग में और महत्वपूर्ण हो गया है। जबकि चारो ओर हिंसा व्याप्त है। हिंसा दरअसल हिंसा को ही जन्म देती है। हिंसा को अहिंसा से ही दबाया जा सकता है। यदि मन में संकल्प कर लें, तो हिंसा अंतत: अहिंसा से पराजित हो जाती है।

आपका एटिट्युड क्या है?

एक बार की बात है एक जगह मंदिर बन रहा था और एक राहगीर वहां से गुजर रहा था।

उसने वहां पत्थर तोड़ते हुए एक मजदूर से पूछा कि तुम क्या कर रहे हो और उस पत्थर तोड़ते हुए आदमी ने गुस्से में आकर कहा देखते नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं आंखें हैं कि नहीं?

वह आदमी आगे गया उसने दूसरे मजदूर से पूछा कि मेरे दोस्त क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से छैनी हथोड़ी से पत्थर तोड़ते हुए कहा रोटी कमा रहा हूं बच्चों के लिए बेटे के लिए पत्नी के लिए । उसने फिर अपने पत्थर तोडऩे शुरु कर दिए ।

अब वह आदमी थोड़ा आगे गया तो देखा कि मंदिर के पास काम करता हुआ एक मजदूर काम करता हुआ गुनगुना रहा था। उस आदमी ने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने फिर पत्थर तोड़ते उस मजदूर से पूछा क्या कर रहे हो मित्र। उस आदमी ने कहा भगवान का मंदिर बना रहा हूं । और इतना कहकर उसने फिर गाना शुरु कर दिया ।

ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे हैं पत्थर तोडऩे का पर तीनों का अपने काम के प्रति दृष्टीकोण अलग -अलग है। तीसरा मजदूर अपने काम का उत्सव मना रहा है।

तीनों एक ही काम कर रहें हैं लेकिन तीसरा मजदूर अपने काम को पूजा की तरह कर रहा है इसीलिए खुश है।

जिन्दगी में कम ही लोग हैं जो अपने काम से प्यार करते हैं और जो करते हैं वे ही असली आनन्द के साथ सफलता को प्राप्त करते हैं। दूनिया में हर आदमी सुखी बन सकता है अगर वो अपना काम समर्पण के साथ करता है।

हम जो कर रहे हैं, उसके प्रति हमारा एटिटयुड क्या है, वह सवाल है। और जब इस एटिटयुड का इस भाव का परिवर्तन होता है, तो हमारी सारी गतिविधि बदल जाती है।

भविष्यवाणी

पडोस की दो महिलायें आपस में बात कर रही थीं । एक भगवान से एक और पोता मांग रही थी । दूसरी महिला बहू की पहली डिलवरी है पोती मांग रही थी । एक और पोते की लालसा में बूढी हो रही महिला ने माथा ठोकते हुए कहा, आओ मंदिर चले।

देापहर में मंदिर क्यों?

अरे ! महात्मा आये हुए हैं, जो कहते है वही होता है। दोनों साथ हो लीं ।

महिलाओं की बात सुनकर महात्माजी बोले, एवमस्तु । दोनों घरों मे किलकारियां गूंजी पर उल्टी । पोती पैदा हुई है यह ख़बर सुनकर दूसरे पोते की लालसा में बूढी हो रही महिला बोली, कैसी भविष्यवाणी किया ढोंगी बाबा जिसकी चाह न थी वो आ गयी ?

असली ख़ुशी

गौरव अपने दोस्त सोमू के घर गया "यार सोमू तुम्हारे घर में डीवी डी नहीं हे ओर तो ओर टी वी भी नहीं हे । तुम शाम को बोर नहीं होते । हम तो अपने घर में ख़ूब फिल्मे देखते हैं ।

"नहीं शाम को जब पापा घर आते हेतो हम कुछ देर पार्क में फ़ुटबाल खेलते हे फिर घर आकर खाना खा कर होमवर्क करते हे सोते समय कहानी सुनते हैं । सोमू ने सहज अंदाज़ में कहा।गौरव को अपना घर याद आ रहा था । पापा शराब पी देर रात को घर आते ओर मम्मी पर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते । कभी-कभी तो हाथ भी उठा देते थे । गौरव इन सब से अनजान बना टी.वी. के चैनल बदलता रहता । अपने आंसुओं को आँखों में समेटे कभी-कभी वह भूखा ही सो जाता ।

आज उसे असली ख़ुशी के मायने समझ आ गए थे ।