मैत्री दिवस पर अपने सब मित्रों के नाम , जिनके बिना यह जीवन निरर्थक होता, मै दो महाकवियों गोस्वामी तुलसी दास और राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना उद्धृत कर रहा हूं :
१. राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर रचित रश्मि रथी से जहां श्री कृष्ण से संवाद के दौरान कर्ण के मुख से कवि ने मैत्री का अति सुन्दर बखान किया है :
मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार योग्य होगा वह नर ,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है ,
खुद आप नहीं कट जाता है ।
जिस नर की बाँह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गही मैने,
उस पर न वार चलने दूंगा,
कैसे कुठार चलने दूंगा ?
जीते जी उसे बचाउंगा,
या आप स्वयं कट जाउंगा ।
मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब इसे तोल सकता है धन ?
धरती की है क्या बिसात ?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ,
उसको भी न्योवछवर कर दूं,
कुरुपति के चरणों मे धर दूं ।
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार योग्य होगा वह नर ,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है ,
खुद आप नहीं कट जाता है ।
जिस नर की बाँह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गही मैने,
उस पर न वार चलने दूंगा,
कैसे कुठार चलने दूंगा ?
जीते जी उसे बचाउंगा,
या आप स्वयं कट जाउंगा ।
मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब इसे तोल सकता है धन ?
धरती की है क्या बिसात ?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ,
उसको भी न्योवछवर कर दूं,
कुरुपति के चरणों मे धर दूं ।
२. गोस्वामी तुलसी दास कृत श्री राम चरित मानस के किष्किन्धा काण्ड से जहां श्री राम संवाद के दौरान सुग्रीव को अपनी मित्रता का भरोसा दिलाते हुए मित्र के गुणों का अति सुन्दर बखान कर रहे हैं :
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी,
तिन्हही बिलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना,
मित्र क दुख रज मेरु समाना ।
जिन्हके अस मति सहज न आई ,
ते सठ कत हठि करत मिताई ।
कुपंथ निवारि सुपंथ चलावा ,
गुन प्रकटै अवगुनहिं दुरावा ।
देत लेत मन संक न धरई ,
बल अनुमानि सदा हित करई ।
बिपत काल कर सतगुन नेहा ,
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ।
आगे कह हित वचन बनाई ,
पीछे अनहित मन कुटिलाई ।
जाके चित एहि गति सम भाई ,
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई ।
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी ,
कपटी मित्र सूल सम चारी ।
सखा सोच त्यागहु बल मोरे ,
सब बिधि घटब काज मैं तोरे ।
मैत्री दिवस पर सबको हार्दिक शुभकामनाएं ।
तिन्हही बिलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना,
मित्र क दुख रज मेरु समाना ।
जिन्हके अस मति सहज न आई ,
ते सठ कत हठि करत मिताई ।
कुपंथ निवारि सुपंथ चलावा ,
गुन प्रकटै अवगुनहिं दुरावा ।
देत लेत मन संक न धरई ,
बल अनुमानि सदा हित करई ।
बिपत काल कर सतगुन नेहा ,
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ।
आगे कह हित वचन बनाई ,
पीछे अनहित मन कुटिलाई ।
जाके चित एहि गति सम भाई ,
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई ।
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी ,
कपटी मित्र सूल सम चारी ।
सखा सोच त्यागहु बल मोरे ,
सब बिधि घटब काज मैं तोरे ।
मैत्री दिवस पर सबको हार्दिक शुभकामनाएं ।
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