हर वक्त नारी की तुलना में स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने वाला पुरूष विधुर होते ही अचानक इतना कमज़ोर हो जाता है कि एक बच्चे को भी अकेले नहीं पाल पाता! बच्चे के पालन-पोषण का हवाला देकर तुरंत पुरुष पर पुनर्विवाह के लिए ज़ोर डाला जाता है। वहीं नारी को अबला की संज्ञा देने वाले समाज द्वारा स्त्री को विधवा के रूप में अकेले जीवन का भार ढोने के लिए छोड़ दिया जाता है।
‘मम्मा, कल चलोगी न अरुण अंकल के घर होली खेलने?’ पलाश की आवाज़ से बरखा की तंद्रा टूटी। पिछले कई दिनों से एक अंतर्द्वद सा मन-मस्तिष्क में चल रहा था। जब से डॉ. अरुण ने बरखा के समक्ष विवाह-प्रस्ताव रखा, तबसे एक अजीब से तनाव में घिर गई थी वह। आखिर क्या जवाब दे..उसने एक हफ्ते का समय मांगा था सोचने के लिए। आज उस हफ्ते का आखिरी दिन है। कल सुबह कुछ तो स्पष्ट करना ही होगा। अपने लिए नहीं, तो कम से कम अरूण के लिए..।
बरखा को अरुण की माताजी की बात स्मरण हो आई-‘बेटी या तो अरुण की ब्याहता बनकर उसको सम्भाल लो या कम से कम उसे स्वतंत्र कर दो.. उसके जीवन से दूर चली जाओ क्योंकि जब तक तुम उसके सम्मुख रहोगी, वह किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकेगा।’ माताजी ने एक नेक-सुशील लड़की की फोटो भी दिखाई थी बरखा को।
‘सुलभा नाम है इसका..पढ़ी-लिखी सुशील लड़की है।’ तस्वीर में वाकई सुंदर लग रही थी सुलभा, पर बरखा को अरुण की शादी की बात सुनकर न जाने क्यों मन में कुछ दरकता-सा अनुभव हुआ। मन में अरुण के चिर-सानिध्य की इच्छा जो सुप्त अवस्था में दबी-छिपी थी, शायद वही मुखरित होने लगी थी। पलाश भी तो अरुण का साथ पाकर खिल उठता है, परंतु अपने स्वार्थ के लिए अरुण का जीवन दांव पर लगा देना भी तो ठीक नहीं..।’ तो क्या करें वह? शादी कर ले अरुण से?
इसी प्रश्न ने पिछले कई दिनों से बरखा का चैन छीन लिया था। वैवाहिक जीवन की तीन साल की छोटी सी अवधि में ही स्वप्निल उसे अकेले वैधव्य भोगने के लिए छोड़ गए थे। एक रात कार्यालय से लौटते समय स्वप्निल की मोटर साइकिल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। तब पलाश केवल दो साल का था। पलाश को लेकर बरखा मां के पास आ गई थी। बरखा के विवाह पश्चात मां भी तो अकेली रह गई थी।
जीवन भर बरखा को मां ने अकेले ही पाला पोसा था। बाप का साया तो उसके सिर से बचपन में ही उठ गया था। आज वही इतिहास जब दोहराया गया, तो मां भी अंदर तक टूट गई थी। पर बरखा व पलाश की खातिर खड़ी रही.. डटकर खड़ी रही। पिछले साल जब पलाश को निमोनिया हो गया, तब इलाज के सिलसिले में ही डॉ. अरुण से मुलाकात हुई थी।
हंसने-खेलने की उम्र में सफेद लिबास में लिपटी खोई-खोई सी बरखा को जिन गहरी नज़रों से डॉ. अरुण देखते, इससे बरखा भले ही अनभिज्ञ थी, पर मां की पारखी नज़रों ने बहुत कुछ जान-समझ लिया। डॉ. अरुण ने भी दो-चार मुलाकातों में औपचारिकताओं को परे कर दिया था। मां को अरुण बिल्कुल घर का सदस्य सा महसूस होता। वह था भी मिलनसार, खुशमिज़ाज..। बरखा ने महसूस किया कि गुमसुम रहने वाला पलाश अरुण के आते ही चहकने लगता है। उसे भी तो अरुण का साथ अच्छा लगने लगा था।
पर मानव-मन की स्वाभाविक सोच के उभरते ही न जाने क्यों उसका मन अपराध-बोध से घिरने लगता। भारतीय नारी को अधिकार ही कहां, जो एक से दूसरे पुरुष को मन में स्थान दे सके। फिर पति चाहे जैसा भी हो.. जीवित हो या मृत। ‘पति-परमेश्वर’ के संस्कार की जड़े स्त्री के मन-मस्तिष्क में तभी से अपनी पैठ जमाना शुरू कर देती है, जब वह बालिका होती है। फि र किशोरी से युवा होते-होते यही संस्कार उसे नियमबद्ध कर डालते हैं। इन नियमों से परे सोचा नहीं कि घोर अपराध कर डालने की ऐसी ग्लानि मन में उत्पन्न होने लगती है, मानो महापाप कर डाला हो।
क्लीनिक बंद कर घर जाते-जाते अरूण रोज़ पलाश को चॉकलेट देते हुए जाना नहीं भूलते। एकाध दिन भी क्लीनिक में देर हो जाती, तो बरखा न जाने कितनी बार घड़ी पर नज़र डालती, फिर अपनी मनोदशा पर स्वयं ही लज्जित होती। बरखा स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि यह कैसी स्थिति है? मन ही मन आत्म-विश्लेषण करती शायद यह इंतज़ार पलाश के मद्देनज़र ही होता है।
पलाश बेहद खुश जो हो जाता है अरुण के आते ही। और बरखा स्वयं? दलीलें तो लोगों के समझ पेश करने के लिए होती हैं, अपने मन को इनसे संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। बरखा स्पष्ट महसूस कर रही थी कि अकेले पलाश ही नहीं, वह स्वयं भी पुलकित हो जाती है डॉ. अरुण के आने पर। अरुण का सानिध्य उसमें नया उत्साह व स्फूर्ति का संचार कर देता है। पर ऐसा होना क्या ठीक है? लोग क्या सोचेंगे, मां क्या सोचेंगी? विचारों का ज्वार-सा था, जो किसी निर्णय पर थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।
बरखा की मन:स्थिति को पहचान कर मां ने ही एक दिन अरुण से क्लीनिक पहुंचकर इस विषय पर बात करने की पहल की थी। अरुण तो जैसे पहले से ही तैयार बैठे थे। केवल हिम्मत जुटाने की देरी थी, जो आज मां ने स्वयं बात कर दिला दी थी। मां ने ही अरूण को स्वयं बरखा से विवाह की बात करने के लिए प्रेरित किया था। अरुण के विवाह-प्रस्ताव पर बरखा ने चुप्पी साध ली थी। न करने का मन नहीं कर रहा था और हां में जहां एक ओर उसकी व पलाश की जीवन भर की खुशियां समाहित थीं, तो वहीं साथ थीं समाज के लोगों द्वारा की जाने वाली टिप्पणियां..अवांछित प्रश्नों की झड़ियां.. लोगों की तिरस्कृत, व्यंग्य कसती नज़रें..।
ढेर सारी सामाजिक वर्जनाओं व नियमों से पटे समाज में स्त्री-पुरुष के लिए इतने भिन्न-भिन्न मापदंड क्यों हैं? हर वक्त नारी की तुलना में स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने वाला पुरुष विधुर होते ही अचानक इतना कमज़ोर हो जाता है कि एक बच्चे को भी अकेले नहीं पाल पाता! बच्चे के पालन-पोषण का हवाला देकर तुरंत पुरूष पर पुनर्विवाह के लिए ज़ोर डाला जाता है। वहीं नारी को अबला की संज्ञा देने वाले समाज द्वारा स्त्री को विधवा के रूप में अकेले जीवन का भार ढोने के लिए छोड़ दिया जाता है। एक अबला नारी विधवा होते ही अकेली जीवन भर स्वयं को तथा बच्चे को पालने में अचानक सक्षम, समर्थ कैसे हो जाती है? जीवन के स्वाभाविक उत्साह-उमंग को सफेद वस्त्रों से ढंक भर देने से मन की सारी संवेदनाएं मर जाती हैं क्या? ऐसी न जाने कितनी विवशताओं को गले में बांधकर स्त्री, गरिमामयी, सहनशील, सर्व-समर्था के थोथे लेबल लटकाए रहती है।
अरुण ने बरखा को सोचने-समझने का पूरा अवसर दिया था। बरखा फिर से अरुण द्वारा लिखा पत्र पढ़ने लगी- ‘बरखा, मैंने तुम पर दया या परोपकार की दृष्टि से विवाह करने का मन नहीं बनाया है। बल्कि यह निर्णय तुमसे व पलाश से अनुराग के तहत ही है। हां, यदि विवाह के बाद दूसरी संतान के आने पर पलाश की उपेक्षा का भय मन में पाले हो, तो तुम्हें यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैंने हमेशा से जीवन में एक संतान का ध्येय तय कर रखा था। वह तुमसे विवाह पश्चात भी कायम रहेगा।
प्यार लुटाने के लिए संतान की रग में अपना ही खून दौड़े, यह मैं नहीं मानता। तुम्हें अपनाने से पलाश स्वयं मेरा अपना हो जाएगा। बरखा, तुम चाहोगी, तो तुम्हारे इन सफेद वस्त्रों में छिपे सभी इंद्रधनुषी रंग तुम्हारे व पलाश के जीवन को रंगमयी कर देंगे। जल्दबाज़ी में तुम कोई निर्णय लो, यह मैं भी नहीं चाहता। पर तुम्हारी स्वीकृति में तीन ज़िंदगियों की खुशियां समाहित है, यह अवश्य स्मरण रखना। कुछ ही दिनों के अंतराल पर रंगपंचमी है। तुम्हारी स्वीकृति के रूप में उस दिन मैं तुम्हें इन सफेद वस्त्रों में नहीं बल्कि इंद्रधनुषी रंगों में लिपटा देखना चाहूंगा।’
सदैव तुम्हारा अरुण
कई बार इन अक्षरों को पढ़ चुकी थी बरखा। पूरे हफ्ते अरुण एक बार भी उससे व पलाश से मिलने नहीं आया था। यह समय उसने बरखा को बिना किसी खलल के, तसल्ली से सोचने-समझने के लिए दिया था। असमंजस्य की स्थिति में फंसी बरखा चुपचाप अपना सिर थामे बैठी थी। मां ने आकर बरखा के माथे पर हौले से हाथ फेरा और बोलीं-‘बेटी, इतना ही कहूंगी कि केवल अपनी अंतरात्मा की बात मानना, इसके आगे और कुछ मत सोच।’
‘मां, तुमने भी तो अपना पूरा जीवन वैधव्य में ही काटा है।’
‘हां बेटी, इसीलिए तो नहीं चाहती कि तू भी इस लम्बे जीवन को नीरस बनाने के लिए बाध्य रहे। समाज नियम तो बनाता है पर नियम से उपजी समस्याएं हल करने नहीं आता।’ मां ने समझाया।
‘परंतु स्त्री के लिए पर-पुरुष के बारे में सोचना तक पाप है न मां? और स्वप्निल की आत्मा को क्या कष्ट नहीं होगा?’ बरखा अब भी दुविधाग्रस्त थी।
‘पर-पुरुष कौन बरखा? हां, सामाजिक परिभाषा के तहत तो केवल पति अपना व उसके अलावा हर पुरुष पराया होता है पर आसपास नज़र डालोगी, तो न जाने कितने ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जहां पति ‘अपने’ होते हुए भी पत्नी की खुशियों को ताक पर रखकर जीते हैं और जो तेरे भले की सोच रहा है.. तेरी खुशी के बारे में सोच रहा है..तुझे मान दे रहा है.. सम्मानजनक जीवन जीने के लिए प्रेरित कर रहा है, वह पराया कैसे हो सकता है? अरुण क्या केवल इसलिए पराया है क्योंकि तेरे जीवन में पहले स्वप्निल आ चुका था?’
‘बेटी, जो गुज़र जाता है, कभी न लौटने के लिए वह स्वप्न ही होता है। स्वप्निल भी तेरी ज़िंदगी का स्वप्न ही था और रही उसकी आत्मा दुखाने की बात, तो क्या स्वप्निल ने कभी चाहा था कि तू और पलाश जीवन को बोझ की तरह लादकर जिओ? पलाश की ओर देख बरखा.. अपने भविष्य की ओर देख..। और तू अकेली नहीं है..। मैं हूं न तेरे साथ.. हर मोर्चे पर तेरी ढाल बनने के लिए तत्पर।’
कितनी व्यग्र.. कितनी व्यथित थी बरखा पर मां ने हर दुविधा को मिटा दिया था। ‘नहीं..अब नहीं भागूंगी मैं यथार्थ से..वास्तविकता की कसौटी पर सही साबित होने वाला, जीवन में खुशियों के रंग बिखेरने वाला उसका निर्णय महापाप कदापि नहीं हो सकता।’
हफ्तेभर से अरुण की अनुपस्थिति से मुरझाए पलाश को बरखा ने प्यार से चूम लिया, ‘बेटा, अरुण अंकल को फोन कर दो, हम सुबह रंग खेलने आ रहे हैं।’
मां भी तो यही चाहती थी कि बरखा के जीवन में अरुण के प्रवेश से इंद्रधनुषी रंग छा जाए और पलाश खिल उठे।
‘मम्मा, कल चलोगी न अरुण अंकल के घर होली खेलने?’ पलाश की आवाज़ से बरखा की तंद्रा टूटी। पिछले कई दिनों से एक अंतर्द्वद सा मन-मस्तिष्क में चल रहा था। जब से डॉ. अरुण ने बरखा के समक्ष विवाह-प्रस्ताव रखा, तबसे एक अजीब से तनाव में घिर गई थी वह। आखिर क्या जवाब दे..उसने एक हफ्ते का समय मांगा था सोचने के लिए। आज उस हफ्ते का आखिरी दिन है। कल सुबह कुछ तो स्पष्ट करना ही होगा। अपने लिए नहीं, तो कम से कम अरूण के लिए..।
बरखा को अरुण की माताजी की बात स्मरण हो आई-‘बेटी या तो अरुण की ब्याहता बनकर उसको सम्भाल लो या कम से कम उसे स्वतंत्र कर दो.. उसके जीवन से दूर चली जाओ क्योंकि जब तक तुम उसके सम्मुख रहोगी, वह किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकेगा।’ माताजी ने एक नेक-सुशील लड़की की फोटो भी दिखाई थी बरखा को।
‘सुलभा नाम है इसका..पढ़ी-लिखी सुशील लड़की है।’ तस्वीर में वाकई सुंदर लग रही थी सुलभा, पर बरखा को अरुण की शादी की बात सुनकर न जाने क्यों मन में कुछ दरकता-सा अनुभव हुआ। मन में अरुण के चिर-सानिध्य की इच्छा जो सुप्त अवस्था में दबी-छिपी थी, शायद वही मुखरित होने लगी थी। पलाश भी तो अरुण का साथ पाकर खिल उठता है, परंतु अपने स्वार्थ के लिए अरुण का जीवन दांव पर लगा देना भी तो ठीक नहीं..।’ तो क्या करें वह? शादी कर ले अरुण से?
इसी प्रश्न ने पिछले कई दिनों से बरखा का चैन छीन लिया था। वैवाहिक जीवन की तीन साल की छोटी सी अवधि में ही स्वप्निल उसे अकेले वैधव्य भोगने के लिए छोड़ गए थे। एक रात कार्यालय से लौटते समय स्वप्निल की मोटर साइकिल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। तब पलाश केवल दो साल का था। पलाश को लेकर बरखा मां के पास आ गई थी। बरखा के विवाह पश्चात मां भी तो अकेली रह गई थी।
जीवन भर बरखा को मां ने अकेले ही पाला पोसा था। बाप का साया तो उसके सिर से बचपन में ही उठ गया था। आज वही इतिहास जब दोहराया गया, तो मां भी अंदर तक टूट गई थी। पर बरखा व पलाश की खातिर खड़ी रही.. डटकर खड़ी रही। पिछले साल जब पलाश को निमोनिया हो गया, तब इलाज के सिलसिले में ही डॉ. अरुण से मुलाकात हुई थी।
हंसने-खेलने की उम्र में सफेद लिबास में लिपटी खोई-खोई सी बरखा को जिन गहरी नज़रों से डॉ. अरुण देखते, इससे बरखा भले ही अनभिज्ञ थी, पर मां की पारखी नज़रों ने बहुत कुछ जान-समझ लिया। डॉ. अरुण ने भी दो-चार मुलाकातों में औपचारिकताओं को परे कर दिया था। मां को अरुण बिल्कुल घर का सदस्य सा महसूस होता। वह था भी मिलनसार, खुशमिज़ाज..। बरखा ने महसूस किया कि गुमसुम रहने वाला पलाश अरुण के आते ही चहकने लगता है। उसे भी तो अरुण का साथ अच्छा लगने लगा था।
पर मानव-मन की स्वाभाविक सोच के उभरते ही न जाने क्यों उसका मन अपराध-बोध से घिरने लगता। भारतीय नारी को अधिकार ही कहां, जो एक से दूसरे पुरुष को मन में स्थान दे सके। फिर पति चाहे जैसा भी हो.. जीवित हो या मृत। ‘पति-परमेश्वर’ के संस्कार की जड़े स्त्री के मन-मस्तिष्क में तभी से अपनी पैठ जमाना शुरू कर देती है, जब वह बालिका होती है। फि र किशोरी से युवा होते-होते यही संस्कार उसे नियमबद्ध कर डालते हैं। इन नियमों से परे सोचा नहीं कि घोर अपराध कर डालने की ऐसी ग्लानि मन में उत्पन्न होने लगती है, मानो महापाप कर डाला हो।
क्लीनिक बंद कर घर जाते-जाते अरूण रोज़ पलाश को चॉकलेट देते हुए जाना नहीं भूलते। एकाध दिन भी क्लीनिक में देर हो जाती, तो बरखा न जाने कितनी बार घड़ी पर नज़र डालती, फिर अपनी मनोदशा पर स्वयं ही लज्जित होती। बरखा स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि यह कैसी स्थिति है? मन ही मन आत्म-विश्लेषण करती शायद यह इंतज़ार पलाश के मद्देनज़र ही होता है।
पलाश बेहद खुश जो हो जाता है अरुण के आते ही। और बरखा स्वयं? दलीलें तो लोगों के समझ पेश करने के लिए होती हैं, अपने मन को इनसे संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। बरखा स्पष्ट महसूस कर रही थी कि अकेले पलाश ही नहीं, वह स्वयं भी पुलकित हो जाती है डॉ. अरुण के आने पर। अरुण का सानिध्य उसमें नया उत्साह व स्फूर्ति का संचार कर देता है। पर ऐसा होना क्या ठीक है? लोग क्या सोचेंगे, मां क्या सोचेंगी? विचारों का ज्वार-सा था, जो किसी निर्णय पर थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।
बरखा की मन:स्थिति को पहचान कर मां ने ही एक दिन अरुण से क्लीनिक पहुंचकर इस विषय पर बात करने की पहल की थी। अरुण तो जैसे पहले से ही तैयार बैठे थे। केवल हिम्मत जुटाने की देरी थी, जो आज मां ने स्वयं बात कर दिला दी थी। मां ने ही अरूण को स्वयं बरखा से विवाह की बात करने के लिए प्रेरित किया था। अरुण के विवाह-प्रस्ताव पर बरखा ने चुप्पी साध ली थी। न करने का मन नहीं कर रहा था और हां में जहां एक ओर उसकी व पलाश की जीवन भर की खुशियां समाहित थीं, तो वहीं साथ थीं समाज के लोगों द्वारा की जाने वाली टिप्पणियां..अवांछित प्रश्नों की झड़ियां.. लोगों की तिरस्कृत, व्यंग्य कसती नज़रें..।
ढेर सारी सामाजिक वर्जनाओं व नियमों से पटे समाज में स्त्री-पुरुष के लिए इतने भिन्न-भिन्न मापदंड क्यों हैं? हर वक्त नारी की तुलना में स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने वाला पुरुष विधुर होते ही अचानक इतना कमज़ोर हो जाता है कि एक बच्चे को भी अकेले नहीं पाल पाता! बच्चे के पालन-पोषण का हवाला देकर तुरंत पुरूष पर पुनर्विवाह के लिए ज़ोर डाला जाता है। वहीं नारी को अबला की संज्ञा देने वाले समाज द्वारा स्त्री को विधवा के रूप में अकेले जीवन का भार ढोने के लिए छोड़ दिया जाता है। एक अबला नारी विधवा होते ही अकेली जीवन भर स्वयं को तथा बच्चे को पालने में अचानक सक्षम, समर्थ कैसे हो जाती है? जीवन के स्वाभाविक उत्साह-उमंग को सफेद वस्त्रों से ढंक भर देने से मन की सारी संवेदनाएं मर जाती हैं क्या? ऐसी न जाने कितनी विवशताओं को गले में बांधकर स्त्री, गरिमामयी, सहनशील, सर्व-समर्था के थोथे लेबल लटकाए रहती है।
अरुण ने बरखा को सोचने-समझने का पूरा अवसर दिया था। बरखा फिर से अरुण द्वारा लिखा पत्र पढ़ने लगी- ‘बरखा, मैंने तुम पर दया या परोपकार की दृष्टि से विवाह करने का मन नहीं बनाया है। बल्कि यह निर्णय तुमसे व पलाश से अनुराग के तहत ही है। हां, यदि विवाह के बाद दूसरी संतान के आने पर पलाश की उपेक्षा का भय मन में पाले हो, तो तुम्हें यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैंने हमेशा से जीवन में एक संतान का ध्येय तय कर रखा था। वह तुमसे विवाह पश्चात भी कायम रहेगा।
प्यार लुटाने के लिए संतान की रग में अपना ही खून दौड़े, यह मैं नहीं मानता। तुम्हें अपनाने से पलाश स्वयं मेरा अपना हो जाएगा। बरखा, तुम चाहोगी, तो तुम्हारे इन सफेद वस्त्रों में छिपे सभी इंद्रधनुषी रंग तुम्हारे व पलाश के जीवन को रंगमयी कर देंगे। जल्दबाज़ी में तुम कोई निर्णय लो, यह मैं भी नहीं चाहता। पर तुम्हारी स्वीकृति में तीन ज़िंदगियों की खुशियां समाहित है, यह अवश्य स्मरण रखना। कुछ ही दिनों के अंतराल पर रंगपंचमी है। तुम्हारी स्वीकृति के रूप में उस दिन मैं तुम्हें इन सफेद वस्त्रों में नहीं बल्कि इंद्रधनुषी रंगों में लिपटा देखना चाहूंगा।’
सदैव तुम्हारा अरुण
कई बार इन अक्षरों को पढ़ चुकी थी बरखा। पूरे हफ्ते अरुण एक बार भी उससे व पलाश से मिलने नहीं आया था। यह समय उसने बरखा को बिना किसी खलल के, तसल्ली से सोचने-समझने के लिए दिया था। असमंजस्य की स्थिति में फंसी बरखा चुपचाप अपना सिर थामे बैठी थी। मां ने आकर बरखा के माथे पर हौले से हाथ फेरा और बोलीं-‘बेटी, इतना ही कहूंगी कि केवल अपनी अंतरात्मा की बात मानना, इसके आगे और कुछ मत सोच।’
‘मां, तुमने भी तो अपना पूरा जीवन वैधव्य में ही काटा है।’
‘हां बेटी, इसीलिए तो नहीं चाहती कि तू भी इस लम्बे जीवन को नीरस बनाने के लिए बाध्य रहे। समाज नियम तो बनाता है पर नियम से उपजी समस्याएं हल करने नहीं आता।’ मां ने समझाया।
‘परंतु स्त्री के लिए पर-पुरुष के बारे में सोचना तक पाप है न मां? और स्वप्निल की आत्मा को क्या कष्ट नहीं होगा?’ बरखा अब भी दुविधाग्रस्त थी।
‘पर-पुरुष कौन बरखा? हां, सामाजिक परिभाषा के तहत तो केवल पति अपना व उसके अलावा हर पुरुष पराया होता है पर आसपास नज़र डालोगी, तो न जाने कितने ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जहां पति ‘अपने’ होते हुए भी पत्नी की खुशियों को ताक पर रखकर जीते हैं और जो तेरे भले की सोच रहा है.. तेरी खुशी के बारे में सोच रहा है..तुझे मान दे रहा है.. सम्मानजनक जीवन जीने के लिए प्रेरित कर रहा है, वह पराया कैसे हो सकता है? अरुण क्या केवल इसलिए पराया है क्योंकि तेरे जीवन में पहले स्वप्निल आ चुका था?’
‘बेटी, जो गुज़र जाता है, कभी न लौटने के लिए वह स्वप्न ही होता है। स्वप्निल भी तेरी ज़िंदगी का स्वप्न ही था और रही उसकी आत्मा दुखाने की बात, तो क्या स्वप्निल ने कभी चाहा था कि तू और पलाश जीवन को बोझ की तरह लादकर जिओ? पलाश की ओर देख बरखा.. अपने भविष्य की ओर देख..। और तू अकेली नहीं है..। मैं हूं न तेरे साथ.. हर मोर्चे पर तेरी ढाल बनने के लिए तत्पर।’
कितनी व्यग्र.. कितनी व्यथित थी बरखा पर मां ने हर दुविधा को मिटा दिया था। ‘नहीं..अब नहीं भागूंगी मैं यथार्थ से..वास्तविकता की कसौटी पर सही साबित होने वाला, जीवन में खुशियों के रंग बिखेरने वाला उसका निर्णय महापाप कदापि नहीं हो सकता।’
हफ्तेभर से अरुण की अनुपस्थिति से मुरझाए पलाश को बरखा ने प्यार से चूम लिया, ‘बेटा, अरुण अंकल को फोन कर दो, हम सुबह रंग खेलने आ रहे हैं।’
मां भी तो यही चाहती थी कि बरखा के जीवन में अरुण के प्रवेश से इंद्रधनुषी रंग छा जाए और पलाश खिल उठे।
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